कुरआन क्या है

कुुरआन मजीद की हैसियत

इन्सान, इस संसार को पैदा करने वाले और उसके मालिक के रूप में एक सबसे ऊंची हस्ती का विचार और विश्वास सदा से रखता चला आ रहा है। अगर वर्तमान युग के कम्युनिस्टों और कुछ नासमझ फ़लसफियों और उनके अन्धे पैरोकारों को छोड़ दिया जाए, तो इतिहास में इस सच्चाई का इन्कार बहुत कम मिल पायेगा। पूरी दुनिया में फैले इस विचार और विश्वास के कारण इन्सानी दिमाग़ में अपने उस पैदा करने वाले और मालिक के बारे में कुछ प्रश्न पैदा होने जरूरी थे। जैसे यह प्रश्न कि उस हस्ती से हमारा किस तरह का ताल्लुक है ? और क्या उसका पैदा करना और उसका मालिक होना हमसे किस विशेष आचार विचार की पदति की मांग करता है ? अगर करता है तो किस पदति की ? ये प्रश्न पैदा हुए इस जोर से हुए कि इन्सान उनकी ओर से अपने कान बन्द न रख सका और उसकी अक़्ल और उसकी अन्तरात्मा ने जो उत्तर दिया वह यह था कि तुम एक जिम्मेदार रचना हो, क्योंकि तुम्हें पैदा करने वाले ने तुम्हें ज्ञान और समझ का एक विशेष गुण प्रदान किया है, भले और बुरे में अन्तर करने की समझ दी है, कार्य और व्यवहार की स्वतन्त्रता दी है, इसलिए बेजान पत्थरों और जानवरों से तुम्हारी हैसियत बुनियादी तौर पर बिल्कुल अलग है। इन विशेष गुणों और शक्तियों का तुम्हारे अन्दर पाया जाना इस बात का पक्का सुबूत है कि तुम्हारा पैदा करने वाला तुम्हें किसी खा़स रवैये पर कारबन्द देखना चाहता है,

हालांकि तुम्हे अपनी पसन्द के रास्ते पर चलने की पूरी आजादी है, लेकिन इस आजादी का सही इस्तेमाल यह नही हैं कि बुद्धिहीन पशुओं की तरह जो जी में आये, करते जाओ, बल्कि यह है कि केवल वही कुछ करो, जो तुम्हारे इंसान होने के अनुरूप हो जो ठीक और सही हो और जिसे खुद तुम्हारे पैदा करने वाले और मालिक की ओर ठीक और सही होने की सनद हासिल हो।

बुद्धि और अन्तरात्मा के इस उत्तर ने स्वाभाविक रूप से मनुष्य को इस बात का जरूरतमन्द बना दिया कि ‘सही’ और ‘गलत’ दोनों उसके सामने अनिवार्य रूप से पूरी तरह स्पष्ट रहे, जीवन के हर क्षेत्र में उसे पूरे यकीन के साथ मालूम हो कि किस ओर जाना उसके मालिक के नजदीक सही और पसन्दीदा है और किस ओर जाना ग़लत और ना-पसन्दीदा है ?

इस स्थिति ने अब यह समस्या खड़ी कर दी कि मनुश्य की यह जरूरत , सबसे महत्वपूर्ण और वास्तविक जरूरत कैसे पूरी हो ? उसे ‘सही’ और ‘गलत’ पसन्दीदा और ना-पसन्दीदा का ज्ञान-स्पष्ट और पूर्ण ज्ञान-कहां से और किससे मिलेगा ? जहाॅ तक उसकी अपनी क्षमताओं का सम्बन्ध था, वे उसकी यह जरूरत पूरी करती नजर न आई। इस मामले में न तो उसकी प्रकृति ने कोई सहायता की, बल्कि यह बेचारी तो इस समस्या को समझ भी न सकी, न उसके विवेक और न उसकी बुद्धि ने कोई खास साथ दिया और उन्हे भी कुछ ही दूर चलने के बाद अपनी मजबूरी का ऐलान कर देना पड़ा। इसका अर्थ यह था कि इस आसमान कि नीचे कोई ऐसी शक्ति नहीं, जो इस समस्या को हल कर सके, ज्ञान का कोई ऐसा साधन नही, जिससे इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर मिल सके। यह उसके
‘ऊपर’ ही से मिल सकता है। ऐसी हालत में इंसान के उस पैदा करने वाले और पालनहार से जिसने उसकी भौतिक आवष्यकताओं की पूर्ति के लिए इतना बड़ा कारखाना बना रखा है, और जिसने इस सिलसिले की जरूरी शक्तियों और स्वाभाविक ‘हिदायतों’  से उसे पूरी तरह नवाज दिया है, यहा तक कि वह उसे पैदा ही इस ‘हिदायत’ के साथ करता है कि वह अपना जीवन किस तरह बाकी रखे और इस के लिए अपनी मा के सीने से दूध किस तरह चूसे-ऐसे सब कुछ जानने वाले और ऐसे दयावान व कृपाषील, पैदा करने वाले और पालनहार से यह कैसे सम्भव था कि वह उस की इस सबसे बड़ी जरूरत की ओर से मुख मोड़ लेता?  निश्चय ही यह उसकी शान के खिलाफ बात थी। उसकी तत्वदर्शिता, उसकी दया, उसकी कृपा, उसका न्याय मतलब यह कि उसका एक-एक गुण इसे असम्भव बता रहा था। संसार में आसमानी हिदायतनामों (ई
-ग्रन्थों) और किताबों का वजूद जिससे वह कभी खा़ली न रहा, इसी सत्य का पता देता है।